Tuesday, January 23, 2007

दीदी से

दीदी से


तुम हो घाटे की पत्रिका
या रिक्त जीवन का प्रतिबिम्ब निःशेषतः
तुम हो वह जो दबोचती है
अपनी अनकही बात,
एक पूरी भीषण अनभिव्यक्ति हो तुम
कोई नहीं है ऐसा जो ले सकेगा संवेदना तुम्हारी
कोई नहीं है बना ऐसा जो समझ सकेगा वेदना तुम्हारी
तुम एक परमोच्च घुटन हो
तुम एक अनुक्ति का दर्शन हो
सुख की कोई गुंजाईश तुम्हारे नसीब में नहीं
ममता की वत्सल सताईश तुम्हारे हिस्से की नहीं
प्रतिक्षण विलक्षण अजीब दुःख का जागरण हो
स्मरणीय तो कुछ खास है नहीं जीवनपट में तुम्हारे
क्या है कुछ बात अज़ीज़सी
निजास्तित्व का व्यवच्छेद कराये ऐसी
जिसका तुम्हें साभिमान स्मरण हो?
जीते जी तुम प्रतिपल एक मरण हो...

एक मैं ही तो हूं जो जानता हूं यह बात
सुपरिचित और अभ्यस्त हूं तुम्हारी घुटन से
सोचता रहता हूं इस पीड़ानिवारण के उपाय
हर दिन हर रात,
रात रात,रात रात

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मी एक आपला साधासुधा बर्‍यापैकी सुमार असा भाषाविज्ञानाचा विद्यार्थी! बाकी एखाद्या Definite Description चा निर्देश माझ्याने व्हावा असले काही कर्तब आपण गाज़वलेले नाही. हां, एवढं कदाचित म्हणता येईल की मराठीतून आंतरजालावर शीवर लिहणारा पहिला...